कहाँ हो तुम ?
अकेले बैठे जब कभी यादों के पन्ने पलटता हूँ,
थोड़ी जो परत धूल की पड़ जाती है वक़्त के साथ,
उसे हटाने में यह सवाल (कहाँ हो तुम ?) मददगार साबित होता है।
फिर धीरे धीरे तुम्हारी झलक दिखनी शुरू होती है,
धीरे धीरे तुम बोलना शुरू करती हो और मैं जब
तुम्हारी आँखों में देखता हूँ तो तुम मुस्कुराती भी हो।
पता भी है तुम्हें ?
चलो बताते हैं तुम्हें कुछ.... .......
तुम अभी भी वहीँ हो जहाँ तुम्हारी तस्वीर के साथ मैंने अपनी डायरी का एक पन्ना मोड़ रखा है।
तुम अभी भी वहीँ हो जहाँ तुम्हारी दी गयी गुलाब के साथ तुम्हारी खुशबु को छोड़ रखा है हमने,
हाँ तुम अभी भी वहीँ हो :)
तुम अभी भी वहीँ हो जिस गली में हमने आना छोड़ रखा है,
या यूँ कहें कुछ की अपने आप को रोक रखा है।
आज साथ नहीं है हम मगर वो सूरज जो कई शाम हमने शाम में साथ ढलता देखा है,
वो तो अभी भी देखती हो ना, वो तो साथ है ना।
हमने किये गए वादे तोड़ दिये अपने,
लेकिन जो उन वादों का गवाह था (सूरज) वो आज भी हमारे साथ है ना।
मुझे याद है उस डूबते सूरज में तुम कहीं खो जाती थी,
आसमान में फैली उस लालिमा को देख मंद मंद मुस्काती थी,
और मैं आने वाली चांदनी का आगाज़ तुम्हारे चेहरे पर जी भर कर देखा करता था,
ये मैंने तुम्हें नहीं बताया कभी।
तुम उस तस्वीर से आज भी मुझे वैसे ही देख रही हो,
जैसे उस दिन देख रही थी जब मैं तुम्हें अपने कैमरे में कैद कर रहा था।
पर क्या ऐसा होता है क्या की जिनका कैमरा होता है याद करने का हक़ भी उनका होता है बस?
तुम वही हो जहाँ हमने तुम्हें छोड़ रखा है,
अपनी बाहों से दूर जहाँ तुम्हे चंद तस्वीरों में कैद कर रखा है।
हाँ, तुम वहीँ तो हो 📷
आज भी गुज़रते शाम तुम नहीं पर तुम्हारी तस्वीर से ही बातें करने में अच्छा लगता है,
तस्वीर से तुम्हारे बोल नहीं, तुम्हारी चुप्पी गूंजा करती है ।
कहाँ हो तुम?
ये मुझसे कहा करती है, शायद ये मेरा वहम है,
तसवीरें भी बोल सकती हैं भला ?
चलता हूँ अब, इन तस्वीरों की गूंज अब बर्दाश्त नहीं हो रही,
तुम रुकना यहीं पर और अगर खुद को ना रोक पाओ तो चली आना मैं बाहें फैलाये इंतज़ार कर रहा हूँ, आज भी ।
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